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हाल के वर्षो में ऐसे किसी अदालती निर्णय का उल्लेख करना कठिन है जिस पर सारे देश की निगाहें लगी हों और जिसे लेकर देश भर में एक तरह से चप्पे-चप्पे पर पुलिस की तैनाती की गई हो। बावजूद इसके जब यह निर्णय आया अर्थात अयोध्या विवाद पर इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ पीठ ने अपना फैसला सुनाया तो महज तीन दिनों के अंदर यह प्रसंग करीब-करीब सुर्खियों से बाहर हो गया। यदि ऐसा हुआ जो कि नजर भी आ रहा है तो इसका अर्थ है कि इस फैसले में ऐसा कुछ था जिससे देश ने राहत की सांस ली और उस पर संतोष जताया। ऐसे माहौल के लिए यदि उच्च न्यायालय के फैसले के अतिरिक्त अन्य किसी को श्रेय दिया जा सकता है तो वह देश की जनता है। यह आम जनता के संयम का ही परिणाम रहा कि नेताओं की भी हिम्मत नहीं पड़ी कि वे लोगों की भावनाओं को भड़काने अथवा राजनीतिक रोटियां सेंकने की कोशिश करें। जिन नेताओं ने ऐसी कोशिश की भी उन्हें जनता ने नकार दिया, जैसे मुलायम सिंह यादव। यह देखना दिलचस्प है कि मुलायम सिंह के एक सहयोगी उन मुस्लिम धर्मगुरुओं पर लाल-पीले हो रहे हैं जिन्होंने सपा प्रमुख को संयमित रहने की हिदायत दी। स्पष्ट है कि वह इससे खीझे हुए हैं कि मुलायम सिंह के भड़काने के बावजूद कोई भड़का क्यों नहीं? यह दुर्लभ क्षण है। यह भारतीय जनता की परिपक्वता का सबूत है। यह पहली बार है जब जनता के संयम से नेताओं की बोलती बंद है और शरारती तत्वों के हौसले पस्त हैं। वस्तुत: राष्ट्रमंडल खेलों का शानदार उद्घाटन नहीं, बल्कि अयोध्या विवाद पर अदालत के फैसले पर देश की जनता का संयमित आचरण और शांति-सद्भाव के लिए उसकी आकांक्षा एक नए भारत के उदय का संकेत है। इसकी सराहना की जानी चाहिए, लेकिन इसी के साथ उन तत्वों से सतर्क रहने की भी जरूरत है जो कुतर्को का सहारा लेकर अयोध्या फैसले की अनुचित व्याख्या कर रहे हैं। कुछ लोग यह साबित करने में लगे हुए हैं कि आस्था कोई सनक जैसी चीज है और उच्च न्यायालय ने महज उसके आधार पर ही फैसला सुना दिया। तथ्य यह है कि फैसले में आस्था को भी महत्व दिया गया है, न कि केवल आस्था को ही। बावजूद इसके एक किस्म का दुष्प्रचार जारी है। जो लोग आस्था को सनक सरीखी कोई चीज साबित करने में लगे हुए हैं उन्हें भारतीय संविधान का वह हिस्सा पढ़ लेना चाहिए जिसमें लिखा है..हम भारत के लोग उसके समस्त नागरिकों को सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय, विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, आस्था और उपासना की स्वतंत्रता..। कुछ लोग अयोध्या फैसले को पंचायती न्याय बताकर यह माहौल बना रहे हैं जैसे न्याय का यह तरीका आदिमयुगीन, सर्वथा अनुचित और हेय हो। ऐसा तब किया जा रहा है जब अदालतों ने न जाने कितने विवाद दोनों पक्षों को संतुष्ट कर सुलझाए हैं। लोक अदालतों और पारिवारिक अदालतों की ओर से ढेरों ऐसे विवादों का निपटारा किया जाता है जिनका उद्देश्य दोनों पक्षों को संतुष्ट कर कलह दूर करना होता है। सरकारें भी तमाम विवादों का निपटारा बीच का रास्ता निकालकर करती हैं। अब यदि इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने भी आस्था, मान्यताओं, सबूतों के आधार पर ऐसा ही कर दिया तो उस पर हाय-तौबा क्यों मचाई जा रही है? क्या इसलिए कि इस फैसले से न कोई पक्ष पूरी तरह जीतता दिखा और न कोई पूरी तरह हारता हुआ? क्या संवेदनशील मामलों में न्याय तभी न्याय की शक्ल लेता है जब एक पक्ष की स्पष्ट जीत हो और दूसरे की स्पष्ट हार? हो सकता है कि अयोध्या मामला जब उच्चतम न्यायालय जाए तो उसका निष्कर्ष उच्च न्यायालय से अलग हो, लेकिन यह कहना अनुचित है कि अयोध्या फैसला न्याय की धारणा के विपरीत और भविष्य के लिए संकट खड़ा करने वाला है। ऐसे न्याय का कोई मतलब नहीं कि अदालतें निर्णय तो दे दें, लेकिन कलह बरकरार रहे। यदि न्याय का उद्देश्य विवाद का समाधान करना नहीं रह जाएगा तब फिर न्याय तो होगा, लेकिन वह दिखेगा नहीं। जिस तरह अयोध्या फैसले को लेकर कुतर्क पेश किए जा रहे हैं उसी तरह इस फैसले के बाद जनता की ओर से प्रदर्शित किए गए संयमित आचरण को लेकर भी तरह-तरह की मिथ्या धारणाएं स्थापित करने की कोशिश की जा रही है। कोई यह कह रहा है कि अयोध्या फैसले के बाद देश इसलिए शांत रहा, क्योंकि आज का भारत युवा भारत है और नई पीढ़ी को इससे मतलब नहीं कि ८०-९० के दशक में अयोध्या में क्या हुआ था और अब वहां क्या होना चाहिए? क्या यह कहने की कोशिश की जा रही है कि युवाओं को देश के अतीत से कोई लेना-देना नहीं। क्या वे अतीत से कट गए हैं? क्या हम ऐसे युवाओं के बीच आ गए हैं जिन्हें पांच हजार साल पुराने अतीत और यहां तक कि १९९२ के पहले तक की विरासत से कोई लेना-देना नहीं? एक दलील यह भी है कि १९९२ में आर्थिक विकास दर २-३ प्रतिशत थी, जो आज ८-९ प्रतिशत है और इसी अंतर ने देश को संयमित रखा। यह भी कहा जा रहा है कि अब सभी आर्थिक प्रगति और उज्ज्वल भविष्य को देख रहे हैं? क्या १९९२ में ऐसा नहीं था? क्या तब देश में यह धारणा थी कि देश गड्ढे में जा रहा है और उज्ज्वल भविष्य के सपने देखना व्यर्थ है? आखिर यह मानने में क्या कठिनाई है कि प्रत्येक समाज और राष्ट्र अतीत से सबक लेता है? यदि देश ने समझदारी का परिचय दिया है तो उसे बिना किसी किंतु-परंतु के क्यों नहीं स्वीकारा-सराहा जा सकता? वैसे यह भी ध्यान रखना चाहिए कि इस समझदारी के पीछे उन उपायों की भी भूमिका रही जो केंद्र और राज्यों ने दूरदर्शिता का परिचय देते हुए शांति-सद्भाव बनाए रखने के लिए किए। (लेखक दैनिक जागरण में एसोसिएट एडीटर हैं)
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