- 10 Posts
- 31 Comments
राजीव सचान
राष्ट्रमंडल खेलों की गहमागहमी के चलते राजनीतिक मसले हाशिए पर हैं, लेकिन वे इतने भी ओझल नहीं हैं कि उनकी अनदेखी की जा सके। भले ही इन मसलों पर व्यापक चर्चा न हो रही हो, लेकिन उन पर गौर किया जाना आवश्यक है। बतौर उदाहरण, बिहार भाजपा के अध्यक्ष सीपी ठाकुर द्वारा त्यागपत्र देना और फिर उसे वापस लेना। अब इसमें किसी को संदेह नहीं कि उन्होंने अपना इस्तीफा सिर्फ इसलिए वापस लिया, क्योंकि उनके बेटे की विधायकी पक्की हो गई। यह भी स्वत: सिद्ध है कि उन्होंने टिकट बंटवारे में अपनी मर्जी न चलने का दुखड़ा रोते हुए इसलिए त्यागपत्र दिया, क्योंकि उनके बेटे को वांछित विधानसभा सीट से उम्मीदवार नहीं बनाया जा रहा था। यद्यपि वह खुद को भाजपा का समर्पित और निष्ठावान कार्यकर्ता बता रहे थे, लेकिन यह साफ हो गया कि उन्हें पार्टी की प्रतिष्ठा की तनिक भी परवाह नहीं थी। यदि होती तो वह ठीक चुनाव के पहले इस तरह बिफरते हुए इस्तीफा देकर पार्टी की फजीहत नहीं कराते। इस पर ध्यान दें कि उन्होंने पार्टी की जगहंसाई इसलिए कराई, क्योंकि उनके बेटे को टिकट नहीं मिल रहा था। जो नेता अपने बेटे को टिकट न मिलता देखकर इस तरह बिफर सकता है उसे यह शिकायत करने का अधिकार कैसे हो सकता है कि प्रत्याशी चयन का काम सही तरीके से नहीं हो रहा है? उन्होंने केवल अपने बेटे के लिए विधान परिषद की सदस्यता ही सुरक्षित नहीं की, बल्कि अपने एक विश्वासपात्र का टिकट भी पक्का करा लिया। इसका अर्थ है कि उनकी सारी परेशानी सिर्फ दो टिकटों को लेकर थी-एक अपने बेटे की और दूसरे अपने एक अन्य चहेते की। हो सकता है कि सीपी ठाकुर के पुत्र विवेक ठाकुर एक योग्य राजनेता साबित हों, लेकिन किसी भी राजनेता के लिए अपने बेटे को उम्मीदवार बनाने के लिए वैसी जिद शोभा नहीं देती जैसी सीपी ठाकुर ने की-और तब तो बिल्कुल भी नहीं जब वह अपने दल का प्रदेश प्रमुख हो। सीपी ठाकुर की जिद इसलिए और अस्वाभाविक थी, क्योंकि वह उस भाजपा के नेता हैं जो खुद को औरों से अलग दल बताने का दावा करती है। अब यह साबित हो गया कि इस दावे में कोई दम नहीं। यह नितांत खोखला और दिखावटी दावा है। भाजपा को यह कहने का कोई अधिकार भी नहीं कि वह अन्य राजनीतिक दलों से अलग है। इस दल में वैसी ही खेमेबाजी है जैसी अन्य दलों में। अन्य दलों के नेताओं की तरह भाजपा नेताओं को भी राजनीतिक मूल्यों-मान्यताओं की कोई परवाह नहीं। भाजपा सत्ता के लिए कुछ भी कर सकती है और किसी भी तरह के नेताओं को गले लगा सकती है। सत्ता के लालच में भाजपा में ऐसे अनेक राजनेता आ चुके हैं जिन्हें पार्टी की रीति-नीति से कोई मतलब नहीं। इसके चलते ही उसकी समस्याएं बढ़ रही हंै। भाजपा इसे स्वीकार करे या न करे, लेकिन अब उसे वंशवाद की राजनीति का विरोध करने का कोई अधिकार नहीं। भाजपा में ऐसे नेताओं की संख्या बढ़ती जा रही है जो अपने पुत्र-पुत्रियों को राजनीति में स्थापित करने में लगे हुए हैं। एक समय था जब गैर कांग्रेसी राजनीतिक दल कांग्रेस की इसलिए आलोचना किया करते थे कि वह वंशवाद की राजनीति को प्रश्रय दे रही है, लेकिन अब करीब-करीब सभी राजनीतिक दल यही कर रहे हैं। भाजपा, सपा, राजद, द्रमुक आदि में वंशवाद की राजनीति को खाद-पानी देने की होड़ सी लगी हुई है। कुछ क्षेत्रीय दल तो निजी कंपनियों की तरह चलाए जा रहे हैं। हाल ही में लालू प्रसाद यादव ने अपने बेटे को राजनीति के मैदान पर उतारा और यह स्पष्ट करने में संकोच नहीं किया कि जब उसकी उम्र हो जाएगी तो वह चुनाव भी लड़ेगा। समय के साथ सभी राजनीतिक दलों ने परिवारवाद की राजनीति के पक्ष में कुछ कुतर्क भी गढ़ लिए हैं। सबसे बड़ा कुतर्क यह है कि यदि डॉक्टर का बेटा डॉक्टर और इंजीनियर का बेटा इंजीनियर बन सकता है तो फिर नेता का बेटा नेता क्यों नहीं बन सकता? यह कुतर्क सबको भा रहा है, लेकिन उसे इसलिए अहमियत नहीं दी जा सकती, क्योंकि डॉक्टर-इंजीनियर खुद के बेटे-बेटियों को अपने पेशे में तभी ला पाते हैं जब वे न्यूनतम योग्यता अर्जित करने के साथ-साथ संबंधित प्रवेश परीक्षा भी पास कर लेते हैं। डॉक्टर-इंजीनियर बनने की न्यूनतम योग्यता है-इंटरमीडिएट पास होना। बिना इंटरमीडिएट हुए कोई भी मेडिकल और इंजीनियरिंग की प्रवेश परीक्षा में शामिल नहीं हो सकता। नेता बनने के लिए ऐसी किसी न्यूनतम योग्यता की कोई दरकार नहीं और राजनेता इसका ही लाभ उठा रहे हैं। वे यह भी कहते हैं कि आखिर नेताओं के परिजनों को जनता ही जिताती है और यदि वे अयोग्य होंगे तो जनता उन्हें नकार देगी। यह सही नहीं, क्योंकि अक्सर प्रमुख दल का उम्मीदवार बन जाने मात्र से एक हद तक जीत तय हो जाती है। यह भी न भूलें कि नेतागण अपने परिजनों की चुनावी जीत के लिए हर संभव उपाय करते हैं। अब नेता पुत्र केवल विधानसभा, लोकसभा चुनाव में प्रत्याशी ही नहीं बन रहे हैं, बल्कि वे राजनीतिक दलों के पदाधिकारी भी बनाए जा रहे हैं। मौजूदा समय माहौल ऐसा है कि कोई भी परिवारवाद की राजनीति पर लगाम लगाना तो दूर रहा, उसका विरोध करने की स्थिति में नहीं। जो परिवारवाद की राजनीति के विरोधी थे वही आज उसे अपनाने में लगे हैं। यद्यपि कांग्रेसी नेता भी अपने परिजनों को राजनीति में स्थापित करने में लगे हुए हैं, लेकिन यह राहतकारी है कि कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी राजनीति में रुचि रखने वाले युवाओं को यह संदेश देने में लगे हैं कि राजनीति में प्रवेश पाने के लिए नेताओं का परिजन होना आवश्यक नहीं। क्या यह विचित्र नहीं कि जब कांग्रेस महासचिव परिवारवाद की राजनीति को खारिज करने में लगे हुए हैं तब अन्य दलों के नेता उसे आगे बढ़ा रहे हैं? (लेखक दैनिक जागरण में एसोसिएट एडीटर हैं)
Read Comments