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इस पर किसी को चकित नहीं होना चाहिए कि कांग्रेस और उसके नेतृत्व वाली केंद्रीय सत्ता ने लोकपाल के मुद्दे पर अन्ना हजारे और उनके साथियों के आगे न झुकने का फैसला किया है। इसके बजाय पार्टी और सरकार ने भ्रष्टाचार और काले धन पर खुद को पाक-साफ दिखाने के लिए एक अभियान शुरू करने की तैयारी की है। इसके जरिये लोगों को यह बताया जाएगा कि पार्टी और सरकार एक मजबूत लोकपाल बनाने और काले धन पर अंकुश लगाने के लिए प्रतिबद्ध है। इस पर आम जनता शायद ही यकीन करे, क्योंकि जिनके इरादे नेक होते हैं वे नेक होने का दिखावा करने के बजाय कुछ ठोस करके दिखाते हैं। मनमोहन सरकार किसी भी मोर्चे पर ऐसा कुछ करने के बजाय सिर्फ बहाने बना रही है। यदि वह काले धन पर अंकुश लगाने के मामले में तनिक भी ईमानदार होती तो अब तक हसन अली को बेनकाब कर चुकी होती, लेकिन ऐसा करने से बचा जा रहा है और वह साफ-साफ दिख भी रहा है। जिस तरह यह स्पष्ट है कि सरकार काले धन पर अंकुश लगाने अथवा उसे जब्त करने के मामले में कुछ नहीं करने वाली उसी तरह यह भी कि वह एक सक्षम लोकपाल बनाने का इरादा नहीं रखती। इस मामले में उसकी ओर से नित-नए कुतर्क दिए जा रहे हैं। कभी कहा जाता है कि प्रधानमंत्री को लोकपाल के दायरे में लाने के लिए संविधान बदलना पड़ेगा तो कभी यह कि प्रधानमंत्री लोकपाल के दायरे में आए तो उनके लिए काम करना मुश्किल हो जाएगा। एक कुतर्क यह भी है कि अन्ना हजारे जैसा लोकपाल चाह रहे हैं उससे एक समानांतर सरकार का निर्माण हो जाएगा। इसका सीधा मतलब है कि 2010 तक प्रधानमंत्री को लोकपाल के दायरे में लाने और सक्षम लोकपाल बनाने की बातें खोखली थीं और उन्हें दोहराने का एकमात्र उद्देश्य देश की आंखों में धूल झोंकना था। अब यह कहीं अधिक आसानी से समझा जा सकता है कि पिछले 43 वर्षो से लोकपाल एक छलावा क्यों बना हुआ है? विडंबना यह है कि कांग्रेस ही नहीं, भाजपा भी यह नहीं चाहती कि कोई सक्षम लोकपाल बने। दरअसल इस मामले में सभी दल एक नाव पर सवार हैं। पता नहीं क्यों भाजपा को यह बताने में शर्म आ रही है कि वह वैसा लोकपाल चाहती है या नहीं जैसा अन्ना हजारे चाह रहे हैं? वह यह भी बताने को तैयार नहीं कि प्रधानमंत्री पद लोकपाल के दायरे में आना चाहिए या नहीं? वह यह अजीब सा तर्क दे रही है कि जब तक सरकार अपनी राय जाहिर नहीं करती तब तक वह भी ऐसा नहीं करेगी। भाजपा सगर्व यह उल्लेख करती है कि जब अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री थे तब वह इसके पक्ष में थे कि प्रधानमंत्री भी लोकपाल के दायरे में आए। ऐसी ही सगर्व घोषणा कांग्रेसजन भी कर रहे हैं। उनके अनुसार मनमोहन सिंह लोकपाल के दायरे में आने को तैयार हैं। यदि वास्तव में ऐसा है तो फिर परेशानी कहां है? जब कांग्रेस की दिशाहीनता और अकर्मण्यता के चलते भाजपा यह मान बैठी है कि 2014 के आम चुनाव के बाद केंद्र की सत्ता उसके हाथों में आने जा रही है तब वह लोकपाल के मुद्दे पर ठीक कांग्रेस जैसा ही व्यवहार कर रही है। ऐसा लगता है कि यदि कांग्रेस सत्ता के अहंकार में चूर है तो भाजपा सत्ता पाने के मद में। भाजपा यह जिद पकड़कर बैठ गई है कि वह लोकपाल पर अपने विचार संसद में ही जाहिर करेगी। क्या संसद में व्यक्त किए जाने वाले विचारों को संसद के बाहर सार्वजनिक करना गुनाह है? कांग्रेस के साथ-साथ भाजपा भी अन्ना हजारे को यह सीख देने में लगी हुई है कि कानून बनाने का काम संसद करती है, लेकिन क्या संसद कोई मशीन है कि उसमें किसी विधेयक का मसौदा डाला और उसे कानून की शक्ल में हासिल कर लिया। संसद को राजनीतिक दल ही सक्षम अथवा अक्षम बनाते हैं। राजनीतिक दलों के बगैर संसद एक विशालकाय इमारत के अलावा और कुछ नहीं है और यदि राजनीतिक दल संसद में जन आकांक्षाओं की पूर्ति नहीं करते तो फिर उसकी सर्वोच्चता और पवित्रता के ढोल पीटना बेकार है। कांग्रेस की तरह भाजपा भी संसद की पवित्रता को एक हौव्वे के रूप में खड़ा कर रही है। यदि संसद इतनी ही पावन-पवित्र है तो फिर वहां टाडा और पोटा जैसे कानून कैसे बने? यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि एक सक्षम लोकपाल के संदर्भ में कांग्रेस और भाजपा के जन विरोधी रवैये में अद्भुत समानता दिख रही है। यदि राजनीतिक दल स्वार्थी और अहंकारी हो जाएं तो संसद भी वैसी ही नजर आएगी। राजनीतिक दल ऐसा व्यवहार कर रहे हैं जैसे संसद में प्रवेश करते ही वे शुद्ध सात्विक भावना से ओत-प्रोत हो जाते हैं और केवल जनसेवा ही उनका एक मात्र ध्येय रह जाता है। राजनीतिक दल और विशेष रूप से कांग्रेस-भाजपा यह बताएं कि क्या 43 वर्षो तक भारत की जनता यह मांग करती रही कि वे लोकपाल विधेयक पारित न करें? सच तो यह है कि इन दलों के स्वार्थो के कारण ही यह विधेयक कानून का रूप नहीं ले सका। कांग्रेस-भाजपा यह भी सीख देने में लगे हुए हैं कि यदि अन्ना हजारे मनमाफिक लोकपाल कानून चाहते हैं तो पहले चुनकर आएं। यह कुतर्क और अहंकार की पराकाष्ठा है। इस कुतर्क के जरिये देश को यह संदेश दिया जा रहा है कि यदि किसी को शासन-प्रशासन से कोई शिकायत है और उसकी कहीं सुनवाई नहीं हो रही तो पहले वह चुनाव लड़े और फिर कानून में तब्दीली कराए। जाहिर है कि न नौ मन तेल होगा और न राधा नाचेगी। अन्ना और उनके साथियों को चुनाव लड़ने का सुझाव उस दल के नेताओं द्वारा देना हास्यास्पद है जिनकी सरकार के मुखिया मनमोहन सिंह को चुनाव लड़ना पसंद नहीं और जो अपने दिखावटी गृह राज्य के चुनाव में वोट भी नहीं डालते। (लेखक दैनिक जागरण में एसोसिएट एडीटर हैं)
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