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जागरण संपादकीय ब्ल
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जैसी कांग्रेस-वैसी भाजपा
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28 Jun, 2011 में
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जैसी कांग्रेस-वैसी भाजपा
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28 Jun, 2011 में
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सीजर की पत्नी का एतराज
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28 Dec, 2010 में
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वंशवाद की निर्लज्ज राजनीति
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12 Oct, 2010 में
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फैसले पर कुतर्कों की बौछार
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5 Oct, 2010 में
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Posted On
1 Apr, 2010 में
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कांग्रेस का नया कार्यक्रम विवाह पूर्व यौन संबंधों पर अवधेश कुमार की टिप्पणी बच्चन परिवार को अवांछित करार देने के कांग्रेस के कृत्य को घटिया राजनीति बता रहे हैं राजीव सचान कांग्रेस का नया कार्यक्रम संबंधों पर सवाल यह लज्जास्पद ही नहीं, बल्कि घृणास्पद भी है कि देश का नेतृत्व कर रही कांग्रेस देश-दुनिया की समस्याओं से जूझने की बजाय यह सुनिश्चित करने में लगी हुई है कि हिंदी फिल्मों के अप्रतिम अभिनेता अमिताभ बच्चन और उनके परिवार को कैसे अपमानित और लांछित किया जाए? यदि कांग्रेस महज एक राजनीतिक दल के रूप में ऐसा क्षुद्र आचरण कर रही होती तो उसका किन्हीं तर्को-कुतर्को के साथ बचाव किया जा सकता था, लेकिन आखिर कांग्रेस शासित केंद्र एवं राज्य सरकारें किसी भारतीय नागरिक को अवांछित कैसे घोषित कर सकती हैं और वह भी तब जब उस नागरिक का नाम अमिताभ बच्चन हो? कांग्रेस को अमिताभ से असहमत होने और यहां तक कि उनका विरोध करने का अधिकार है, लेकिन उसके मंत्री और मुख्यमंत्री उनके साथ अछूतों जैसा व्यवहार कैसे कर सकते हैं? क्या अमिताभ बच्चन देशद्रोही हैं? यह संभव है कि कांग्रेस की ओर से जो राजनीतिक तुच्छता दिखाई जा रही है उससे अमिताभ बच्चन की सेहत पर फर्क न पड़े, लेकिन यह तथ्य आम भारतीयों को ग्लानि से भर देने वाला है कि विनम्र-विद्वान छवि वाले मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्री पद पर रहते हुए आम कांग्रेसी नहीं, बल्कि उसके मंत्री-मुख्यमंत्री देश के सबसे लोकप्रिय अभिनेता की बेइज्जती कर रहे हैं? कांग्रेस अपने ऐसे आचरण के जरिये एक तरह से यह कहने में लगी हुई है कि आओ, हमसे सीखो कि अमिताभ बच्चन जैसे शख्स को कैसे बेइज्जत किया जा सकता है? यह सही है कि अमिताभ गुजरात के ब्रांड एम्बेसडर बन गए हैं, लेकिन क्या यह कोई गुनाह है? क्या गुजरात देश के बाहर का कोई ऐसा हिस्सा है जहां से भारत विरोधी गतिविधियां चलाई जा रही हैं? हालांकि अमिताभ स्पष्टीकरण दे चुके हैं कि वह गुजरात के ब्रांड एम्बेसडर हैं, नरेंद्र मोदी के नहीं, फिर भी अनेक लोगों को उनका फैसला रास नहीं आया है और वे उनकी आलोचना कर रहे हैं। इस आलोचना में कोई बुराई नहीं, बुराई इसमें है कि महाराष्ट्र, दिल्ली की सरकारों के साथ-साथ केंद्रीय सत्ता के प्रतिनिधि अमिताभ बच्चन को अवांछित बताने का काम कर रहे हैं। चूंकि अशोक चव्हाण के साथ-साथ कांग्रेस के एक प्रवक्ता साफ तौर पर कह चुके हैं कि सरकारी कार्यक्रमों में बच्चन की मौजूदगी मंजूर नहीं है इसलिए इस नतीजे पर पहुंचने के अलावा और कोई उपाय नहीं कि बिग बी को अपमानित करने का फैसला कांग्रेसी सरकारों का नीतिगत निर्णय है। दिल्ली में आयोजित अर्थ ऑवर शो प्रतीकात्मक ही सही, एक बड़े उद्देश्य के लिए था। कांग्रेसजनों को इस शो के ब्रांड एम्बेसडर अभिषेक बच्चन के पोस्टर हटाने अथवा हटवाने के पहले इस पर लाज क्यों नहीं आई कि कम से कम ग्लोबल वार्मिग के प्रति आम जनता को जागरूक बनाने के इस कार्यक्रम में संकीर्णता दिखाने से बचा जाए? अर्थ ऑवर शो में हुए अनर्थ पर मुख्यमंत्री शीला दीक्षित की इस सफाई पर आश्चर्य नहीं कि उन्हें नहीं पता कि अभिषेक इस कार्यक्रम के ब्रांड एम्बेसडर हैं। चूंकि बच्चन परिवार की बेइज्जती का कांग्रेसी कार्यक्रम शासनादेश जारी कर नहीं चलाया जा रहा इसलिए शीला दीक्षित को झूठ का सहारा लेना पड़ा। इसके पहले अमिताभ के भय से जयराम रमेश बाघ बचाओ अभियान के कार्यक्रम से गायब रहे। कम से कम ऐसे कार्यक्रमों को तो घटिया राजनीति से दूर रखा ही जा सकता था। बीते दिनों कांग्रेस के आग्रह के बावजूद मुख्य न्यायाधीश केजी बालाकृष्णन ने गांधी नगर में उस समारोह में शिरकत की जिसमें नरेंद्र मोदी भी थे। क्या अब कांग्रेस उनका भी अमिताभ बच्चन की तरह विरोध करेगी? बेहतर होगा कि कांग्रेस बच्चन परिवार को कानूनी रूप से अवांछित घोषित करा दे। तब कम से कम कांग्रेसी नेता अमिताभ-अभिषेक से कन्नी काटने के लिए झूठ का सहारा लेने से तो बच जाएंगे। माना कि कांग्रेस को नरेंद्र मोदी से चिढ़ है और वह उनके साथ खड़े होने वालों को भी बर्दाश्त करने के लिए तैयार नहीं, लेकिन क्या इस तथ्य को झुठला दिया जाए कि वह भारत के एक प्रांत के मुख्यमंत्री भी हैं और उन्हें ठीक उसी तरह लोगों ने चुना है जैसे शीला दीक्षित और अशोक चह्वाण को? क्या अब कांग्रेस अमिताभ बच्चन की तरह रतन टाटा, मुकेश अंबानी आदि को भी अवांछित करार देगी, क्योंकि ये दोनों न केवल गुजरात में भारी निवेश कर रहे हैं, बल्कि मोदी की तारीफ भी कर रहे हैं? (लेखक दैनिक जागरण में एसोसिएट एडिटर हैं) शादी के पूर्व यौन संबंध या बिना शादी के साथ रहने पर उच्चतम न्यायालय की टिप्पणियां निश्चय ही देश के एक प्रभावी वर्ग की भावनाओं को अभिव्यक्त करने वाली हैं। सामान्य तौर पर यह तर्क किसी को भी गलत नहीं लगेगा कि यदि दो वयस्क आपसी सहमति से यौन क्रिया करते हैं या साथ रहते हैं तो इसे अपराध नहीं माना जाना चाहिए। अपराध तभी होगा जब दोनों में से किसी एक पक्ष ने जोर-जबरदस्ती किया है। इसलिए यदि उच्चतम न्यायालय की पीठ ने याचिकाकर्ताओं के वकील से यह पूछा कि इसमें अपराध कहां है तो उसे असामान्य रवैया नहीं कहा जा सकता। उच्चतम न्यायालय पहले ही लिविंग रिलेशनशिप को कानूनी मान्यता दे चुका है। यही नहीं उच्चतम न्यायालय निजता के दायरे में वयस्क समलैंगिकता को भी गैर कानूनी मानने से इनकार कर चुका है। वास्तव में उच्चतम न्यायालय का मौजूदा रुख इन दोनों फैसलों का ही अगला चरण है। उच्चतम न्यायालय के सामने यह मामला तमिल अभिनेत्री खुशबू द्वारा पांच वर्ष पूर्व दिए गए एक साक्षात्कार के कारण आया जिसमें उसने शादी के पूर्व सेक्स का समर्थन किया था। उसने एक पत्रिका को साक्षात्कार देते हुए कहा कि शादी पूर्व यौन संबंधों में कोई बुराई नहीं है, लेकिन ऐसा करते वक्त सावधानियां बरतनी चाहिए। उसका यह भी कहना था कि शिक्षित युवा द्वारा अपनी पत्नी से कौमार्य की उम्मीद करना भी पुरातनपंथी विचार है। उसके बाद खुशबू पर अलग-अलग न्यायालयों में 22 मुकदमे किए गए। खुशबू के बयान के बाद क्या देश के माहौल में कोई अंतर आ गया? क्या उसके बयान के बाद किसी माता-पिता ने यह शिकायत की कि उनकी लड़की/लड़का उसके कारण घर छोड़कर चले गए या गलत रास्ते की ओर मुड़ गए? न्यायालय के अनुसार यदि ऐसा कोई वाकया सामने नहीं आया तो आप कैसे कह सकते हैं कि इस प्रकार के बयान से समाज का वातावरण बिगड़ता है। जाहिर है, इन प्रश्नों का कोई संपुष्टकारक उत्तर नहीं हो सकता। इसलिए न्यायालय में इस मामले का हस्त्र बिल्कुल साफ है। किंतु इस पर विचार करने का दूसरा दृष्टिकोण भी हो सकता है। प्रश्न केवल यह नहीं है कि खुशबू अपने वक्तव्य में गलत थी या सही? किंतु जो चीज कानूनी रुप से सही हो, आवश्यक नहीं कि समाज उसे स्वीकार कर ले, वह समाज की कसौटियों पर भी सही हो, नैतिक भी हो या उसका कोई दुष्परिणाम न आए। न्यायालय द्वारा लिविंग रिलेशनशिप संबंधी फैसले का केवल एक अल्पसंख्यक वर्ग ने ही स्वागत किया। न्यायालय के आदेश के खिलाफ यद्यपि अपने देश में सार्वजनिक तौर पर प्रतिक्रिया देने की मानसिकता नहीं है, पर यदि आज भी सर्वेक्षण किया जाए तो बहुसंख्य समाज इसे स्वीकारने को तैयार नहीं है। समलैंगिकता वाले फैसले को तो उतने बड़े वर्ग ने भी स्वीकार किया। यही बात खुशबू मामले में न्यायालय के वर्तमान मंतव्य पर भी है। इसमें भी एक माननीय न्यायाधीश ने यह टिप्पणी की कि नैतिकता या अनैतिकता को आप अपराध के दायरे में कैसे लाएंगे? निस्संदेह, इन्हें कानूनी तौर पर अपराध के दायरे में नहीं लाया जा सकता। लेकिन यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि नैतिकता के बंधनों का अंतिम उद्देश्य समाज को सुगठित रखना और जीवन गतिविधियों को सुचारु रुप से संचालित करना ही है। न्यायायलय ने भी नैतिकता को अनावश्यक नहीं कहा है। कानून एवं न्यायालयों की सामाजिक जीवन के मामले में सीमाएं स्पष्ट हैं। इनसे समाज की सामूहिक सोच को बदलना संभव नहीं है। समाज की सोच कानून से नहीं, पंरपराओं से प्रभावित है। कानून की सजा का भय जानते हुए भी समाज परंपराओं के आवरण में अपराध कर बैठता है। इसलिए आवश्यकता संतुलित समाज सुधार अभियानों की हैं। (लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं) क्या गुजरात का ब्रांड एम्बेसडर बनना गुनाह है? क्या यह देश के बाहर का कोई ऐसा हिस्सा है जहां से भारत विरोधी गतिविधियां चलाई जा रही हैं? कानून की सामाजिक जीवन में सीमाएं स्पष्ट हैं समाज की सोच कानून से नहीं, पंरपराओं से प्रभावित होती
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1 Apr, 2010 में
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सुधी पाठक
Posted On
23 Jan, 2010 में
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Hello world!
Posted On
6 Jan, 2010 में
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इंडिया का पीएम कौन
Posted On
6 Jan, 2010 में
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